सवाल
कभी कभी जीवन की निरस्त और एकरसता से समय निकाल के अपने अंदर की ओर झांकना चाहिये। अपने आप से सवाल जवाब करना हमें मनुष्य बनाता है। कोई बन्दर, कोई हिरण, कोई कुत्ता, कोई गीदड़ सुबह उठके अपने आप से सवाल नहीं पूछता है। हाँ, वैसे तो बहुत सी और विशेषताएँ हैं जो जानवर से हमें अलग करती हैं, पर अगर आप थोड़ा ध्यान से सोचें तो उनमें से एक अहम यह भी दिखेगी।
हमारी ज़्यादातर ज़िन्दगी हमारे पांच इन्द्रियों और समाज के नियमों से ही निर्देशित होती है। पर इस बात का अफ़सोस करने का कोई फायदा नहीं है, बस कभी कभी थोड़ा सा ज़ोर लगाने की ज़रूरत है।
सवाल पूछना बहुत ही ज़रूरी है, उसके बगैर ये खतरा रहेगा की हम दूसरों के जवाबों की हवा में उड़ते चले जाएंगे, जहाँ झोका आया, जहाँ आंधी आयी।
सवाल भी कई तरह के होते हैं, कुछ नए, कुछ पुराने, कुछ मुश्किल और कुछ आसान। इधर अभी मैं सिर्फ आसान और पुराने सवालों की ही बात करूँगा। उसी जंग में ही हमारी सुई अटकी पड़ी है, नए और मुश्किल तो आप अभी रहने दें। मैं आपको फिर भी इस निबंध के आखिर में नए और मुश्किल सवाल की एक झलक दिखला दूंगा, पर आप अभी इसमें मत उलझियेगा।
पहला सवाल है कि हमारी पहचान क्या है? हमारी जाति, हमारा धर्म, और हमारे जन्म स्थान से उसका क्या रिश्ता है? ये बहुत ही पुराना और आसान सवाल है। इसका हम सबको बहुत ही ईमानदारी से जवाब देना चाइए। याद रखें - आपके सुबह उठके पूछे हुए सवाल के जवाब - मैं सिर्फ उसमें ही ईमानदारी रखने की बात कर रहा हूँ। जीवन की कठिनाइयो और समाज की आंधियों के बीच उसको पकड़ के खड़े होने में अंतर है, यह मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ, और उसपर मैं बाद में आऊँगा।
हाँ तो मेरा जवाब है की पहचान का सवाल हमारी जात और धर्म से नहीं है। ये कोई मुश्किल जवाब नहीं था, बहुत से लोग इसको दिन में बड़े आराम से दोहरा लेंगे। इस जवाब पर बहस करना मेरा मकसद नहीं है। जो लोग इसे नहीं मानते वो एक अनजान इंसान की एक शांत आवाज़ को मेज़ पर पड़े धूल की तरह उड़ा देंगे। और यहाँ पर यह भी साफ़ होजाए कि मैं किस्से बात कर रहा हूँ। मैं आपसे बात कर रहा हूँ जिसने दिन के उजाले में इसको अपने जीवन में सैकड़ों बार दोहराया है। आपका और मेरा ये जवाब रात के सन्नाटे में झींगुर के कलरव तक जैसी भी आवाज़ नहीं बना पाता है। आप आंधी तूफ़ान तो छोड़ दीजिए।
हमारी ख़ामोशी, हमारी सहमति, हमारा बड़ों के प्रति आदर, और अपनों से स्नेह, ये सब, समाज के उन दीमकों के लिए एक निहत्थी लकड़ी का काम करती है जो इस समाज को खोखला बनाने में लगी है। इसमें कोई दो राहे नहीं लेनी चाहिये, अगर आपका जवाब मेरे जवाब से मिलता है, अगर आप धर्म और जात में भेद नहीं करते, तो मैं चाहूंगा कि आप समझें की इसका उल्टा सोचने वाले लोग इस समाज के दीमक हैं। आपको मेरी बातें तर्कहीन निष्कर्ष लग सकती हैं, और आप यह भी सोच सकते हैं कि मुझमें इसका सबूत या तर्क रखने की काबिलियत नहीं है। और मैं आपका इसमें कोई विरोध नहीं करूँगा। मुझसे बड़े कई समझदार हैं, मेरा यहाँ ज्ञान बाटने का उद्देश्य नहीं है। मैं आशा करता हूँ कि कोई पाठक-विद्वान इस पर तर्क लिख सकेगा।
मेरा मकसद सिर्फ कुछ बातें याद दिलाना है। किसी घर का सर्वनाश सिर्फ एक ही तरीके से नहीं किया जाता। कोई भीड़ उसको आग लगा सकती है, कोई आतंकी उसको बारूद से उड़ा सकता है, कोई म्युनिसिपेलिटी उसको बुलडोज़र से ढहा सकती है। और कुछ सैंकड़ों दीमक उसको भीतर से खोखला कर सकते हैं। अगर आपसे कोई पूछे की आप अपने घर की कैसे देखभाल करते हैं , आप उसे किसी हानि से कैसे बचाते हैं, क्या आपका जवाब यह होगा कि मैं उसको आग नहीं लगाता। उसको मैं कभी बम से नहीं उड़ाता, ना ही मैं उसपर कभी बुलडोज़र चढ़ाता हूँ। आप भीड़, आतंकी और म्युनिसिपेलिटी छोड़िए, क्या आप उसको दीमक से भी नहीं बचाएंगे? क्या आप का जवाब हमेशा यही रहेगा की आप कुछ गलत नहीं करेंगे? क्या आप कभी कुछ सही नहीं करेंगे? याद रखें, कि जहाँ आप और मैं इन सोच, सवाल, जवाब, कागज़ और मीटिंग में अपना समय निकाल रहे हैं, वहाँ वो लोग जो जात और धर्म को महत्व देते हैं, वो सीना ठोक के दे रहे हैं।
आपकी खामोशी उस रात में अकेलापन पैदा कर रही है, जिसके डर से सब सहमे से बैठे हैं। हर एक आवाज़, हर एक कदम, हर एक बात इस संसार की मानवता का आकार है।
अगर कुछ शब्द कठोर हैं, तो मेरा मानना है की होने चाहिये, अंध-भक्ति, अंध-आदर, अंध-प्रेम हमें अंधा बना रहा है। यहाँ हर दूसरा दीमक लकड़ी की क्वालिटी पर अपनी शिकायतें दर्ज करा रहा है, और यहाँ आप सभ्य होने का उधारण देने में लगे हैं। आदर्शवाद या वास्तविकता की बहस न करके, अपनी वास्तविकता में कुछ आदर्श लाएँ।
अंतरिक्ष में यान भेजना बहुत ही महंगा होता है। उसमे से एक कारण यह भी है कि ये यान सिर्फ एक ही बार इस्तेमाल होते हैं। जब वे धरती की तरफ एक आग के गोले के समान प्रवेश करते है, तो वे अंत में, स्वभावतः नष्ट हो जाते हैं। अगर हर एक यात्रा के बाद आपकी गाड़ी का यह हाल हो तो आप सोच सकते हैं कि कितने लोग आज गाड़ी का इस्तेमाल कर रहे होते। २००२ मे एक इंसान ने अपने सारे कमाये हुए पैसे इस सवाल पर लगा दिए कि क्या ऐसा अंतरिक्ष यान बनाया जासकता है जो धरती पर पुनः अवतरण कर सके और पुनः अंतरिक्ष में जा सके। २०१५ में, तेरह साल बाद, उसने इस सवाल का जवाब निकाल लिया। अब उसने मानवता के लिए एक अगला सवाल पूछा है - क्या इंसान एक भिन्न-ग्रहों का वासी बन सकता है?
आप से अगला सवाल क्या किया जाएगा?
उठाये गये सवाल वाजिब है पर मनुष्य के 'विकास के साथ साथ परिवार, समाज, विग्यान के विकास और दृष्टिकोण मे परिवर्तन अवश्यम्भावी है. जाति धर्म लिंग आदि के आधार पर मनुष्य मे भेद हमे सैकड़ों वर्ष पीछे ले जा सकती है परंतु वर्तमान से भी कुछ सकारत्मक अपेक्षा दिखाई नही देती. कहीं ऐसा तो नही कि जितनी तेजी से मनुष्य विकास कर रहा है उतनी तेजी से वह विनाश की ओर अग्रसर है चाहे वह दूसरे ग्रह को खोज कर उसमे बस जाये.
ReplyDeleteआलेख सारगर्भित है वाक्य विन्यास, शब्दो के चयन मे और सुधार की सम्भावना बनी हुई है. जब तक जीवन है सवालो की श्रृंखला अनवरत जारी रह सकती है.